Monday, 17 October 2016

गौरैया दे गयी वास्तविक आनन्द
डाॅ0 रत्ना गुप्ता
(स्तम्भकार एवं कहानीकार)
जेठ की चिलचिलाती गर्मी थी। धूप आंगन में पसर रही थी। मेरी कक्षा आठ की परीक्षायें समाप्त हो गयीं थीं। मैं छुट्टियों का लुत्फ उठा रही थी, .............. कमरे में डबल बेड के सिरहाने पीठ सटाकर दोनों पैर फैलाये बैठे हुये .......... खुली आॅंखों से स्वप्न देखते हुये। पंखा सर-सर-सर-सर चल रहा था। तभी मैनें देखा कि एक गौरैया गर्मी से व्याकुल छाॅंव की तलाश में कमरे के ऊपरी झरोखे में आकर बैठ गयी। उसने इधर-उधर कई बार देखा फिर कमरे के अन्दर आकर जमीन पर इधर उधर फुदक-फुदक कर अपनी उदर पूर्ति के लिए दाना और आशियाने के लिए तिनका तलाशने लगी। मै डर गई कि कहीं ये गौरैया पंखे की चपेट में ना आ जाये। मंै जल्दी से उठी, दीवार पर लकड़ी के बोर्ड में लगे पंखे के बटन को बंद किया और अपनी जगह आकर पुनः बैठ गयी। कुछ देर बाद चिड़िया अपनी चिमटी जैसी चोंच में तिनका दबाकर पंख फड़फड़ाकर उड़ी, पंखे के नीचे-नीचे कमरे का एक चक्कर लगाया और जिस झरोखे से आई थी उसी से बाहर चली गयी। मैं तपाक से उठी और मैंने पंखे का बटन दबा दिया। मैंने राहत की साॅंस ली क्योंकि इतनी देर में मैं पसीने से तर-ब-तर हो गयी थी। लेकिन तभी मेरी नजर अचानक रोशनदान पर पड़ी ............ ये क्या ......! चिड़िया पुनः वहाॅं बैठी थी।
इस बार मेरी पंखे का बटन बंद करने की कोई इच्छा न थी। लेकिन मैं अपने आप को रोक न सकी। मैनें पंखें का बटन बन्द कर दिया। पंखे की गति धीमी होते होते इतनी धीमी हो गयी कि उसके तीन पंख अलग-अलग दिखाई दे रहे थे। गौरैया पूर्ववत फर्श पर बैठी, इधर उधर अपनी स्प्रिंग जैसे गर्दन घुमायी, फुदकते हुये एक तिनका अपनी चोंच में दबाया और पंख फड़फड़ाकर फुर्रऽऽ से उड़ी। लेकिन ये क्या .................! इस बार उससे चूक हो गयी ................... वह पंखे के धीमे-धीमे घूमते परों से टकराकर धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ी। मेरा बाल-मन व्यथित हो उठा। मैने पास आकर देखा और महसूस किया कि वह जिन्दा है, लेकिन यान्त्रिक राक्षस के द्वारा चोटिल होने की वजह से उड़ने में असमर्थ है। मैेंने चावल के कुछ दानें लाकर, अखबार पर, उसके आगे रख दिये और वहीं पर पानी की कटोरी भी। मेरी उपस्थिति में उसने कुछ नही खाया पिया। शायद वह भयभीत थी। लेकिन जब मैं वहाॅं से चली गयी तो उसने चावल के दानें भी खाये और पानी भी पिया। मैं यह सब बाहर खिड़की से झाॅंककर देख रही थी। मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था ................. इतना अच्छा कि जितना पहले कभी नही लगा था। मैने कमरे का दरवाजा ढुलका दिया क्योंकि मेरे घर एक काली बिल्ली आती थी। मुझे डर था कि कहीं बिल्ली चिड़िया को न खा जाये। मेरा भाई जो मुझसे 6 वर्ष छोटा था, बार बार आता और दरवाजा खुला छोड़कर चला जाता पर मंैने हार नहीं मानी ................... मैं दरवाजा ढुलकाती रही.....एक सजग प्रहरी की तरह उसकी रक्षा करते हुये। 
रात्रि को मैं कमरे का दरवाजा ढुलकाकर छत पर सोने चली गयी। सुबह जैसे ही मेरी आॅंख खुली मै जीने की सीढियाॅं सर-पट-सर-पट उतरते हुये कमरे में पहुॅंची ................. पर ये क्या ...............! चिड़िया अपनी जगह से गायब थी। एक क्षण को मैं डर गयी कि कहीं बिल्ली ....लेकिन दूसरे ही क्षण मैनें देखा कि चिड़िया रोशनदान में बैठी थी। शायद, मुझसे विदा लेने के लिये मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। वह मेरे जीवन का सबसे सुखद क्षण था। उस अनुभूति की अभिव्यक्ति कठिन है, पर मंैने वास्तविक आनन्द का अर्थ व्यावहारिक रूप में समझ लिया था।