Wednesday, 9 November 2016

CONCEPT MAPPING AS A SUCCESSFUL TOOL FOR TEACHING , LEARNING AND EVALUATION IN PRIMARY GRADES (ARTICLE)

मित्रों,
आज की सुबह बड़ी खुशनुमा रही। डाकिये ने खाकी रंग का आयताकार लिफाफा दिया। खोला तो उसमें प्रतिष्ठित जर्नल प्राइमरी टीचर(अप्रैल-जुलाई 2015) यह जर्नल राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित होता है। इसमें मेरा लेख भी छपा है। 
यह लेख बच्चों के  उप योगी शिक्षणअधिगम एवं मूल्यांकन की एक नई तकनीक से सम्बन्धित है। आप लोग भी पढ़िये और अधिक से अधिक ‘शेयर’ कीजिये।















Tuesday, 8 November 2016

लैंगिक समानता आधारित समाज के लिए पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकों में सुधार जरूरी
डाॅ0 रत्ना गुप्ता

14 अप्रैल को डाॅ0 बी0आर0 अम्बेडकर का जन्म दिवस है उन्होने अपने हिन्दू कोड बिल में उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की थी, लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्त करने के 68 वर्ष बाद भी हम उनके लैंगिक समानता आधारित समाज के स्वप्न को साकार नही कर पाये हैं इसका कारण है शैक्षिक लिंग भेद। डिस्ट्रिक्ट इन्फार्मेशन सिस्टम फाॅर एजूकेशन (2011-12) की रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं की साक्षरता 65.5ः और पुरूषों की 82.2ः है प्राथमिक स्तर पर लड़कियों का नामांकन 48.35ः और उच्च स्तर पर 17ः जबकि लड़कों का 20ः है। आल इण्डिया सर्वे आन हायर एजूकेशन 2010-11 के अनुसार स्नातक एवं परास्नातक पाठ्यक्रमों में लड़के एवं लडकियों का नामांकन क्रमशः 45ः एवं 55ः, जबकि पी0एच0डी0 में, 62ः एवं 38ः है।
जेण्डर गैप रिपोर्ट (2015) के अनुसार 145 देशों में भारत की श्रेणी, महिलाओं की शैक्षिक उपलब्धि में 125वीं है और राजनीति में नौवीं है। वास्तव में महिला भारत में राजनैतिक दृष्टि से बड़ी सशक्त है। विभिन्न राज्यों में सर्वोच्च राजनैतिक पदों पर महिलाओं की उपस्थिति इसे विश्व में दूसरा स्थान दिलाती है। अमेरिका जैसे प्रगतिशील देशों में भी अभी तक सर्वेाच्च राष्ट्रपति पद पर महिला आसीन नही हुयी है जबकि हमारे यहाॅं प्रतिभा देवी सिंह पाटिल पहले ही राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर चुकी है। 
वर्तमान में मानव संसाधन एवं विकास मन्त्रालय स्मृति ईरानी के पास है अर्थात एक महिला के हाथों में ही महिलाओं को शिक्षित  करने की जिम्मेदारी है लेकिन सर्वोच्च पदों पर महिलाओं के होने के बावजूद भी आम महिलायें शैक्षिक रूप से पुरूषों के बराबर सशक्त नही हो पा रही है और हम ‘प्लेज फाॅर पैरिटी’ को पूरा नही कर पा रहें है।  
आखिर कारण क्या हैं? आइये देखते हैं। 
हमारी संस्कृति में विवाह अनिवार्य माना जाता है, विवाह न करने पर महिला को सम्मान की दृष्टि से नही देखा जाता। कई इलाकों में तो आज भी बाल-विवाह प्रचलित है इसके अतिरिक्त हमारे यहाॅं विवाह की आयु 18 वर्ष है, यह वह उम्र है जब तक शिक्षा पूरी नही हो पाती, इस प्रकार विवाह की अनिवार्यता और कम उम्र में विवाह महिलाओं को शिक्षा के अधिकार से वंचित कर देता है मुथेजा, पापुलेशन फाउन्डेशन आॅफ इण्डिया, की निर्देशक के अनुसार, ‘‘विवाह पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं के भविष्य को अधिक सीमित कर देता है। 
दूसरा कारण हमारे समाज में दहेज प्रथा का अनेक सरकारी प्रयासों के बावजूद, आज भी प्रचलित होना है। दहेज के बोझ की वजह से माता-पिता लड़कियों की पढ़ाई पर अधिक खर्च नहीं करना चाहते क्योंकि वे जानते है कि उनकी लड़की चाहें कितनी भी सुशिक्षित  क्यों न हो, सुयोग्य वर के लिये उन्हे विवाह पर विपुल धन खर्च करना ही होगा।
तृतीय कारण हमारा पुरूष सत्तात्मक समाज है। हमारे यहाॅं महिलाओं का प्रथम दायित्व गृह-कार्य और बच्चों की परवरिश समझी जाती है, नौकरी करना आवश्यक नही समझा जाता। यह परम्परागत सोच भी महिलाओं की शिक्षा में बाधक है। 
साथ ही साथ विद्यालयों का पहुॅंच से बाहर होना, जहाॅं न बिजली है न आवागमन की सुविधायें है, सभी विद्यालयों में महिला प्रसाधन का न होना और महिला शिक्षकों की सहभागिता अनुपात से कम होना भी महिलाओं के अशिक्षित होने के कारण हैं क्योंकि इन्फार्मेशन सिस्टम फार एजूकेशन (2011-12) की रिपोर्ट के अनुसार, 72.16 प्रतिशत विद्यालयों में महिला प्रसाधन है लेकिन प्राथमिक स्तर पर यह प्रतिशत 65.4 है। महिला शिक्षकों का प्रतिशत प्राथमिक स्तर पर 46.27 है तथा आल इण्डिया सर्वे आॅफ हायर एजूकेशन के अनुसार ‘‘उच्च स्तर पर 59 प्रतिशत महिला शिक्षक हैं। बहुत से अभिभावक पुरूष शिक्षकों से अपनी बेटियों को पढवाना पसन्द नही करते तथा बहुत सी लड़कियाॅं स्वयं भी पुरूष शिक्षकों से पढ़ने में संकोच करती है।
इसके अतिरिक्त महिला हिंसा, निम्न स्वास्थ्य स्तर, जागरूकता की कमी और जेन्डर वायज्ड पाठ्य पुस्तकें भी महिलाओं की शिक्षा के अवरोधक हैं, एन0सी0ई0आर0टी0 की प्राथमिक स्तर की पाठ्यपुस्तकों का लैंगिक विष्लेषण दर्शाता है कि 18 पुस्तकों में महिलाओं को नर्स, शिक्षिका और गृहणी की परम्परागत भूमिकाओं में, जबकि पुरूषों को मुख्य व्यवसायिक भूमिकाओं में चित्रित किया गया है। 
इन चुनौतियों पर विजय पाने के लिये विवाह के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा, विवाह की आयु बढ़ानी होगी, समाज को लड़कियों के प्रति संवेदनशील बनाना होगा, इसके लिये शैक्षिक एवं सामाजिक स्तर पर ‘जेन्डर सेन्सटिव ट्रेनिंग प्रोग्राम’ की शुरूआत करनी होगी। साथ ही साथ विद्यालयों को महिलाओं की पहुॅंच में लाना होगा, महिला शिक्षिकाओं की अधिकाधिक नियुक्ति करनी होगी, विद्यालयों में प्रसाधन सुविधाओं को सुनिश्चित करना होगा पाठ्यक्रम में आत्मरक्षा एवं स्वास्थ्य कार्यक्रमों एवं महिला जागरूकता कार्यक्रमों को सम्मिलित करना होगा, पाठयपुस्तकों को सुधारना होगा जो महिलाओं को कमजोर तरीके से चित्रित करती है तथा इनमें ऐसी विषय वस्तु को स्थान देना होगा जो महिलाओं को प्रेरित एवं सशक्त कर सके जैसे, विकसित देशों में महिलाओं की दशा, महिला अधिकार एवं कानून, महान महिलाओं की जीवनियाॅं, महिला सशक्तीकरण की आवश्यकता आदि, तभी हम शैक्षिक लिंग भेद को मिटा पायेगें तथा अम्बेडकर के लैंगिक समानता आधारित समाज के स्वप्न को साकार कर पायेगें। यही उनके जन्मदिवस पर उन्हे सच्ची पुष्पांजलि होगी।
स्वतन्त्र भारत शाहजहाॅंपुर समाचार पत्र में 16 नवम्बर 2016 को प्रकाशित

चुनाव रैली
चुनाव  का समय था। नेशनल पार्टी की जिला स्तरीय रैली थी। रैली को सम्बोधित करने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष आ रहे थे। पंडाल में लोगों की संख्या कम थी। जिला अध्यक्ष चिन्तित थे। उन्होने अपने एक अनुचर के कान में कुछ पंूछा, अनुचर ने बहुत धीरे से कहा, ‘‘साहब! मजदूरों को बुलाया है’’। 


बहू की समझदारी
दीनानाथ की दोनो किडनी खराब हो गई। उनके आर्थिक हालात अच्छे न थे। इलाज की समस्या थी। दीनानाथ की बहू ने दीनानाथ की पत्नी से कहा, ‘माता जी! बाबू जी बीमार हैंे........। घर में बहुत लोगों का आना जाना रहता है............. आभूषण लाॅकर में रखवा दीजिये।’ दीनानाथ और दीनानाथ की पत्नी ने बहू की तरफ विचित्र नजरों से देखा। 

Friday, 4 November 2016

       जेन्डर समानता के अग्रदूत थे गाँधी
                                      (गाँधी जयन्ती पर विशेष)
डाॅ0 रत्ना गुप्ता
(स्तंभकार एवं कहानीकार)
              लिंग के आधार पर स्त्री और पुरूष पर भूमिकाओं, जिम्मेदारियों, क्षमताओं, आकांक्षाओं, कौशलों और व्यवहार का ठप्पा लगा देना जेन्डर है और इस ठप्पे के आधार पर स्त्री और पुरूषों से अलग-अलग अपेक्षाएं करना, जेन्डर स्टीरियोटाइपिंग है इस जेन्डर स्टीरियोटाइपिंग की वजह से हम जेन्डर-पक्षपात करने लगते हैं। जेन्डर असमानता जेन्डर पक्षपात का परिणाम है। जेन्डर असमानता आज एक वैश्विक मुद्दा है। थर्ड वल्र्ड कान्फ्रेन्स आन वूमेन बीजिंग में महिलाओं पर हुये तीसरे वैश्विक सम्मेलन से लेकर 2000 में हुये वैश्विक शिक्षा फोरम, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 तथा तत्पश्चात राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 इत्यादि सभी में जेन्डर समानता पर विशेष बल दिया गया है। अभी हाल ही में राष्ट्रीय शिक्षा शिक्षा परिषद (एन.सी.टी.ई.) के लिए जारी किये गये राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा में एक विषय जेन्डर, स्कूल एवं सोसाइटी भी सम्मिलित किया गया है इन सभी प्रयासों का उद्देश्य जेन्डर समानता लाना है क्योंकि जेन्डर असमानता समाज में बहुत सी बुराइयों की जननी है, जैसे कन्या भू्रण हत्या, महिला हिंसा इत्यादि। इसका ताजा तरीन उदाहरण है पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में दो दिनों में चार लड़कियों को उनके सिरफिरे आशिकों द्वारा बेहद हिंसक तरीके से मारा जाना। एक को सरेआम चाकू मारे गये, दूसरी को भीड़ के बीच सड़क के किनारे बाईस बार कैंची घोपी गयी, तीसरी को गोली मार गयी लेकिन उसके लाॅकेट ने उसे बचा लिया और चैथी को तीसरी मंजिल से फेक दिया गया। ये लड़किया इसलिए मारी गयी क्योंकि इन्होंने अपने आशिकों के प्रेम निवेदन को ठुकरा दिया। कोई लड़की किसी के प्रेम को ठुकरा सकती है ऐसे व्यवहार की अपेक्षा आज के दौर में भी लड़के नहीं करते और जब ऐसा होता है तो उनके अहंकार को चोट पहुंचती है और वे हिंसक हो जाते हैं। इसके मूल में समस्या जेन्डर की है जो कि सामाजिक प्रक्रिया है इन लड़कों का समाजीकरण इस तरह हुआ होगा कि उनके लिए लड़कियों, को ‘न’ अपेक्षातीत थी। वे उनसे एक निश्चित भूमिका का निर्वहन चाहते थे अर्थात वे उनसे सिर्फ अपने निवेदन के लिए ‘हाँ’ चाहते थे।
2 अक्टूबर को सत्य और अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी का जन्म दिवस है। आज जिस जेन्डर  समानता की बात हो रही है। गाँधी जी इसके अग्रदूत थे। वे मानते थे कि पुरूष जाति की सबसे भयंकर दुःखदायी तथा पाश्विक भूल नारी के साथ किया गया अन्याय है। उनका विश्वास था कि जब नारी को संसार में पुरूष ही के समान अवसर मिलने लगेगा और पुरूष और नारी दोनों मिलकर परस्पर सहयोग करते हुये आगे बढ़ेंगे तब उसके चमत्कारपूर्ण वैभव का दर्शन होगा। स्त्री जाति को शक्ति और महन्ता के बारे में गांधी जी की सोच जेन्डर मुक्त थी। उन्होंने इसके प्रत्यक्ष उदाहरण भी प्रस्तुत किये। जब तक उन्होंने इस देश के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश नहीं किया था स्त्री शक्ति मानो सोयी पड़ी थी। निसंदेह वह गृहलक्ष्मी और माता के रूप में हमारे पारिवारिक जीवन को प्रकाशित, सुशोभित और मंगलमय कर रही थी किन्तु उसकी अन्य लोकोपकारिणी शक्तियों को प्रकट होने का अवसर अभी नहीं मिल पाया था। यह गांधी जी के कार्यकाल में मिला। स्वाधीनता युद्ध में उन्होंने महिलाओं को परम्परागत भूमिका से इतर भूमिका निर्वहन के लिये प्रेरित किया। परिणामस्वरूप, असंख्य महिलाएं पर्दे और अन्तःपुर से बाहर निकल पड़ी और स्वातंत्रय यज्ञ में अपना-2 हविर्भाव अर्पण करने की होड़ करने लगी। कहीं-कहीं तो वे पुरूषों से भी आगे बढ़ गयीं। उन्होंने शराब और विदेशी कपडे़ की दुकानों के सामने धरना दिये। धारासना और बढ़ाला के नमक सत्याग्रह में वीरता का परिचय दिया। गांधी जी ने नारी जगत में एक चेतना उत्पन्न कर दी स्व. श्रीमती रामेश्वरी नेहरू, सरोजिनी देवी, विजयलक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृतकंुवर, सुचेता कृपलानी, सुशीला नायर और मणिबहन पटेल के नाम, तो केवल भारत में ही नहीं, बाहर के लोग भी जानते हैं। इनके अलावा स्वाधीनता युद्ध के दिनों में कहाँ-2 कितनी महिलाऐं जेल गयीं तथा देश के विभिन्न भागों में अपनी-अपनी रूचि के सेवा कार्यों में लग गयीं उनकी गिनती नहीं की जा सकती।
वास्तव में संसार के अन्य देशों में पुरूषों के समान मताधिकार प्राप्त करने के लिए स्त्रियों को जाने कितने वर्ष राह देखनी पड़ी। परन्तु भारत में स्वतंत्रता की घोषणा के साथ ही एकदम सहज और स्वाभाविक रूप में स्त्रियों को समान अधिकार प्राप्त हो गये। इतने बड़े देश की प्रधानमंत्री बनने का गौरव तो सबसे पहले भारतीय नारी को प्राप्त हुआ आज भारत के सार्वजनिक जीवन में जितनी महिलाएं भाग ले रही हैं इन सबके मूल में गांधी जी का ही प्रभाव है। अगर हम सर्वोदय के मसीहा का जन्म दिवस सच्चे अर्थों मे मनाना चाहते हैं तो हमें जेन्डर की समस्या का हल करना होगा। इसके लिए हमें लोगों को जागरूक करना होगा, जेन्डर सेन्सिटाइजेशन प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करने होंगे, इन कार्यक्रमों का प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित करना होगा, पाठ्य पुस्तकों का विश्लेषण जेन्डर के दृष्टिकोण से करना होगा, दृश्य-श्रव्य मीडिया को जेन्डर सेन्सिटिव बनाना होगा, जेन्डर मुद्दे उठाने होंगे, विद्यालयों में पाठ्यसहगामी कार्यक्रमों जैसे नाटक, कविता, कहानी, गीत आदि के माध्यम से छात्रों के दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा, विश्वविद्यालय स्तर पर जेन्डर मुद्दों पर शोध कार्यों को बढ़ावा देना होगा तभी हम एक जेन्डर फ्री समाज की कल्पना कर सकते है। ऐसा कब होगा, यह भविष्य के गर्भ में है।