मातृत्व अवकाश की समय सीमा बढ़ाना प्रासंगिक
संसद के इस मानसून सत्र में मातृत्व अवकाश सम्बन्धी विधेयक पारित हो गया। इसमें निजी कंपनियों की महिला कर्मचारियों के लिए मातृत्व अवकाश 12 सप्ताह के स्थान पर 26 सप्ताह करने का प्रावधान है यानि महिलाओं को अब साढ़े छह महीने की छुटटी मिलेगी।
विधेयक में 50 से अधिक कर्मचारियों वाले संस्थानों के लिये शिशु कक्ष की व्यवस्था करना अनिवार्य होगा। कानून का उल्लंघन करने वाले नियोक्ताओं को जुर्माने के अलावा एक साल तक की सजा का प्रावधान है।
यह उन सामाजिक संगठनों की जीत है जो स्त्रियों के हक की आवाज को बुलन्द करते हुये मातृत्व अवकाश की अवधि बढ़ाने की मांग कर रहे थे। इस मसले को लेकर पूरे विश्व में बहस चलती आई है। इसके पक्षधर मानते है कि संतानोत्पत्ति को भी उत्पादन का हिस्सा मानना चाहिये और स्त्री को इसके लिये पर्याप्त सुविधा देनी चाहिए।
भारत जैसे देश में जहाॅं नारी देवी तुल्य और शिशु जन्म देव इच्छा माना जाता है, सरकार का यह कानूनी कदम मातृत्व एवं शिशु देखभाल की दिशा में सराहनीय एवं स्वागत योग्य है क्योंकि भारत में नौकरी पेशा महिलाओं को दिया जाने वाला मातृत्व अवकाश कई छोटे देशों में दिये जाने वाले अवकाश से बहुत कम है। आर्गनाइजेशन फाॅर इकोनोमिक्स कारपोरेशन डेवलेपमेन्ट की दिसम्बर 12, 2013 की रिपोर्ट के अनुसार हंगरी डेढ वर्ष का मातृत्व अवकाश प्रदान करता है तथा साथ ही पोलैण्ड, स्पेन, चेक रिपब्लिक, जर्मनी, हंगरी, फ्रंास और फिनलैण्ड तीन या अधिक वर्ष का प्रोटेक्टेड अवकाश भी प्रदान करते है। प्रोटेक्टेड अवकाश माता पिता को शिशु की देखभाल के लिए बिना नौकरी खोने के भय के, नौकरी से अलग रहने की अनुमति प्रदान करता है।
मातृत्व अवकाश की समय सीमा बढ़ाने के सन्दर्भ में अन्य तर्क यह दिया जा सकता है कि आजकल संयुक्त परिवार की संस्कृति विलुप्त होती जा रही है, और एकल परिवार की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है जो पहले से ही बहुत अधिक है। एकल परिवारों में शिशु की देखभाल के लिए कोई नही होता। कभी-कभी तो पति-पत्नी के कार्य स्थल भी अलग-अलग होते हैं जिसके चलते महिला को अकेले ही शिशु की देखभाल करनी पड़ती है। मातृत्व अवकाश समाप्त होने पर माता को आया के सहारे नवजात शिशु को छोडकर कार्य-स्थल पर जाना पड़ता है। जिसका शिशु के सांवेगिक मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
इसके अतिरिक्त भारत में सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश इस तरह का है कि उच्च शिक्षा और अच्छी नौकरी के बाद भी शादी और मातृत्व के लिये न कहना कठिन है। बच्चों की परवरिश महिलाओं की जिम्मेदारी मानी जाती है और पुरूषों की नौकरी महिलाओं से ज्यादा जरूरी। स्वयं महिलाओं को मातृत्व जिम्मेदारी नौकरी से ज्यादा बड़ी लगती है। बहुत सी महिलायें मातृत्व प्रेम के चलते, नौकरी तक छोड देती है। कभी-कभी वे अवैतनिक अवकाश भी ले लेती है। जिससे उनकी पदोन्नति बाधित होती है और वरिष्ठता क्रम तथा मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। ऐसे उदाहरण भी सामने आते है कि मातृत्व अवकाश समाप्त होने पर जब महिला वापस नौकरी पर आती है तो उसे कमतर जिम्मेदारी और अपेक्षाकृत कम महत्व के प्रोजेक्ट दिये जाते है, क्योंकि वह ज्यादा घण्टे नही रूक सकती, उन्हे टीम की सबसे कमजोर कड़ी समझा जाता है। प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से उसके अधिकारी एवं सहयोगी उस पर फब्तियाॅं कसते है, जिससे उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुॅंचती है। एक बार पुनः वह मनोवैज्ञानिक शोषण का शिकार होती है।
इस कानूनी कदम से नौकरीपेशा महिलाओं को कुछ राहत अवश्य मिलेगी वे नौकरी छोडने को विवश नही होगीं तथा शाइनिंग इण्डिया तथा मेक इन इण्डिया का सपना साकार करने में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकेगी। लेकिन हर बात का एक स्याह पक्ष भी होता है इस कानूनी प्रयास ने मन में यह आशंका उत्पन्न कर दी है कि कहीं निजी संस्थान महिलाओं को नौकरी देना बन्द न कर दें। निजी संस्थानों का रवैया बड़ा खराब हैं वहाॅं तो मातृत्व अवकाश लेने की स्थिति में महिलाओं को अक्सर नौकरी छोडने को मजबूर होना पड़ता है। कई संस्थान इसी कारण महिलाओं को नौकरी देने से हिचकते है या उन्हे प्रेग्नेन्ट होते ही कोई बहाना बनाकर उन्हे निकाल देते है। भारत की टोटल वर्क फोर्स में महिलाओं की भागीदारी कम होने का यह एक बड़ा कारण है। सरकारी आॅंकडों के मुताबिक वर्ष 2004-05 में कुल श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी 29.4 फीसदी थी जो 2011-12 में घटकर 22.5 प्रतिशत रह गई। इसलिये सरकार को कुछ ऐसे उपाय करने होगें जिनसे न सिर्फ महिलाओं का रोजगार बना रहे बल्कि इसमें बढोत्तरी भी हो जिस तरह से सरकार ने पिछले साल कम्पनियों के बोर्ड में कम से कम एक महिला का शामिल रहना जरूरी बनाया था उसी प्रकार हर संस्थान के लिये महिला कर्मियों का एक निश्चित न्यूनतम प्रतिशत अनिवार्य बनाया जा सकता है।
संसद के इस मानसून सत्र में मातृत्व अवकाश सम्बन्धी विधेयक पारित हो गया। इसमें निजी कंपनियों की महिला कर्मचारियों के लिए मातृत्व अवकाश 12 सप्ताह के स्थान पर 26 सप्ताह करने का प्रावधान है यानि महिलाओं को अब साढ़े छह महीने की छुटटी मिलेगी।
विधेयक में 50 से अधिक कर्मचारियों वाले संस्थानों के लिये शिशु कक्ष की व्यवस्था करना अनिवार्य होगा। कानून का उल्लंघन करने वाले नियोक्ताओं को जुर्माने के अलावा एक साल तक की सजा का प्रावधान है।
यह उन सामाजिक संगठनों की जीत है जो स्त्रियों के हक की आवाज को बुलन्द करते हुये मातृत्व अवकाश की अवधि बढ़ाने की मांग कर रहे थे। इस मसले को लेकर पूरे विश्व में बहस चलती आई है। इसके पक्षधर मानते है कि संतानोत्पत्ति को भी उत्पादन का हिस्सा मानना चाहिये और स्त्री को इसके लिये पर्याप्त सुविधा देनी चाहिए।
भारत जैसे देश में जहाॅं नारी देवी तुल्य और शिशु जन्म देव इच्छा माना जाता है, सरकार का यह कानूनी कदम मातृत्व एवं शिशु देखभाल की दिशा में सराहनीय एवं स्वागत योग्य है क्योंकि भारत में नौकरी पेशा महिलाओं को दिया जाने वाला मातृत्व अवकाश कई छोटे देशों में दिये जाने वाले अवकाश से बहुत कम है। आर्गनाइजेशन फाॅर इकोनोमिक्स कारपोरेशन डेवलेपमेन्ट की दिसम्बर 12, 2013 की रिपोर्ट के अनुसार हंगरी डेढ वर्ष का मातृत्व अवकाश प्रदान करता है तथा साथ ही पोलैण्ड, स्पेन, चेक रिपब्लिक, जर्मनी, हंगरी, फ्रंास और फिनलैण्ड तीन या अधिक वर्ष का प्रोटेक्टेड अवकाश भी प्रदान करते है। प्रोटेक्टेड अवकाश माता पिता को शिशु की देखभाल के लिए बिना नौकरी खोने के भय के, नौकरी से अलग रहने की अनुमति प्रदान करता है।
मातृत्व अवकाश की समय सीमा बढ़ाने के सन्दर्भ में अन्य तर्क यह दिया जा सकता है कि आजकल संयुक्त परिवार की संस्कृति विलुप्त होती जा रही है, और एकल परिवार की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है जो पहले से ही बहुत अधिक है। एकल परिवारों में शिशु की देखभाल के लिए कोई नही होता। कभी-कभी तो पति-पत्नी के कार्य स्थल भी अलग-अलग होते हैं जिसके चलते महिला को अकेले ही शिशु की देखभाल करनी पड़ती है। मातृत्व अवकाश समाप्त होने पर माता को आया के सहारे नवजात शिशु को छोडकर कार्य-स्थल पर जाना पड़ता है। जिसका शिशु के सांवेगिक मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
इसके अतिरिक्त भारत में सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश इस तरह का है कि उच्च शिक्षा और अच्छी नौकरी के बाद भी शादी और मातृत्व के लिये न कहना कठिन है। बच्चों की परवरिश महिलाओं की जिम्मेदारी मानी जाती है और पुरूषों की नौकरी महिलाओं से ज्यादा जरूरी। स्वयं महिलाओं को मातृत्व जिम्मेदारी नौकरी से ज्यादा बड़ी लगती है। बहुत सी महिलायें मातृत्व प्रेम के चलते, नौकरी तक छोड देती है। कभी-कभी वे अवैतनिक अवकाश भी ले लेती है। जिससे उनकी पदोन्नति बाधित होती है और वरिष्ठता क्रम तथा मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। ऐसे उदाहरण भी सामने आते है कि मातृत्व अवकाश समाप्त होने पर जब महिला वापस नौकरी पर आती है तो उसे कमतर जिम्मेदारी और अपेक्षाकृत कम महत्व के प्रोजेक्ट दिये जाते है, क्योंकि वह ज्यादा घण्टे नही रूक सकती, उन्हे टीम की सबसे कमजोर कड़ी समझा जाता है। प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से उसके अधिकारी एवं सहयोगी उस पर फब्तियाॅं कसते है, जिससे उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुॅंचती है। एक बार पुनः वह मनोवैज्ञानिक शोषण का शिकार होती है।
इस कानूनी कदम से नौकरीपेशा महिलाओं को कुछ राहत अवश्य मिलेगी वे नौकरी छोडने को विवश नही होगीं तथा शाइनिंग इण्डिया तथा मेक इन इण्डिया का सपना साकार करने में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकेगी। लेकिन हर बात का एक स्याह पक्ष भी होता है इस कानूनी प्रयास ने मन में यह आशंका उत्पन्न कर दी है कि कहीं निजी संस्थान महिलाओं को नौकरी देना बन्द न कर दें। निजी संस्थानों का रवैया बड़ा खराब हैं वहाॅं तो मातृत्व अवकाश लेने की स्थिति में महिलाओं को अक्सर नौकरी छोडने को मजबूर होना पड़ता है। कई संस्थान इसी कारण महिलाओं को नौकरी देने से हिचकते है या उन्हे प्रेग्नेन्ट होते ही कोई बहाना बनाकर उन्हे निकाल देते है। भारत की टोटल वर्क फोर्स में महिलाओं की भागीदारी कम होने का यह एक बड़ा कारण है। सरकारी आॅंकडों के मुताबिक वर्ष 2004-05 में कुल श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी 29.4 फीसदी थी जो 2011-12 में घटकर 22.5 प्रतिशत रह गई। इसलिये सरकार को कुछ ऐसे उपाय करने होगें जिनसे न सिर्फ महिलाओं का रोजगार बना रहे बल्कि इसमें बढोत्तरी भी हो जिस तरह से सरकार ने पिछले साल कम्पनियों के बोर्ड में कम से कम एक महिला का शामिल रहना जरूरी बनाया था उसी प्रकार हर संस्थान के लिये महिला कर्मियों का एक निश्चित न्यूनतम प्रतिशत अनिवार्य बनाया जा सकता है।
Bahut bariya
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