Tuesday, 17 January 2017

मित्रों
आज दि० 17-01-2017 के वीथिका‚ दैनिक जागरण लखनउ संस्करण में मेरी लघुकथा प्रकाशित हुई है।

व्यवहारिक डिग्री

एक थी नन्दिनी, पढ़ने में बड़ीऽऽ होशियार थी। कक्षा 6 में सरकारी विद्यालय में पढ़ती थी। एक दिन उसकी कक्षा अध्यापिका ने कक्षा की सभी छात्राओं को हिन्दी के ‘रामराज्य’ पाठ के समस्त प्रश्नोत्तर याद करके आने को कहा। नन्दिनी ने सभी प्रश्नोत्तर अच्छे से याद कर लिये। अगले दिन कक्षाध्यापिका ने पहला प्रश्न पूछा। केवल दो छात्राओं ने उत्तर देने के लिए अपना हाथ खड़ा किया। अध्यापिका ने एक-एक करके दोनो को उत्तर बताने को कहा, अधिक अच्छा उत्तर नन्दिनी ने ही बताया। इसी प्रकार जब उन्होने दूसरा प्रश्न पूछा तो केवल नन्दिनी उत्तर बता सकी। अन्य सभी प्रश्नों के भी उत्तर बताने वाली वह अकेली छात्रा थी। छात्राध्यापिका ने उसे शाबासी देते हुये कहा केवल एक ही छात्रा सारे उत्तर याद करके लायी है।
नन्दिनी बड़ी प्रसन्न हुयी। लेकिन उस दिन से उसके अन्दर घमण्ड का अंकुर फूट गया। जब परीक्षा परिणाम मिला, वह कक्षा में प्रथम आयी। द्वितीय स्थान प्राप्त करने वाली छात्रा के उससे लगभग 100 अंक कम थे। आगे की कक्षाओं में भी उसकी ऐसी ही उपलब्धि रही लेकिन उसमें पड़ा घमण्ड का अंकुर बड़ा होता गया। वह सभी को अपने से कमतर समझने लगी और अपने आपको विशेष। उसे लगा कोई उसकी मित्रता के लायक नहीं है। उसने सभी से बातचीत करना बन्द कर दिया। अब उसका कोई मित्र न रहा। वह कक्षा में मध्यान्ह के समय भी पुस्तक निकालकर पड़ती रहती। खाना भी न ले जाती क्योंकि अकेले खाना खाते उसे अच्छा न लगता था। जब हम अपने आपको विशेष समझने लगते हैं तो हम बहुत अकेले हो जाते है। धीरे-धीरे उसका व्यक्तित्व अन्र्तमुखी हो गया। किसी-से भी बात करने में उसे घबड़ाहट होने लगी। न बोलने के कारण उसका सम्प्रेषण कौशल खराब हो गया, बोलते समय उसकी जुबान लड़खड़ाने लगी।
बड़ी होकर उसने एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय की परास्नातक कक्षा में प्रवेश लिया यहाॅं उसका वास्ता बड़े-बडे़ शहरों के श्रेष्ठ महाविद्यालयों से आये छात्रों से पड़ा। यहाॅं उसे अपना अस्तित्व चींटी से भी कमतर लगा। वहाॅं सेमेस्टर प्रणाली थी, आन्तरिक मूल्यांकन था, सेमिनार, वाद-विवाद , मौखिक परीक्षायें दिन-प्रतिदिन होती थीं। अन्र्तमुखी होने के कारण उसे बड़ी परेशानी होती थी। सामान्यवर्ग के ज्यादातर छात्र उपलब्धि में उससे आगे रहते। कुॅंये का मेढक अब समुद्र में आ गया था जहाॅं बड़े-बड़े जीव थे। वह सोचने लगी कि अगर सारे होशियार छात्र उससे बात करना बन्द कर दें, तो क्या होगा? शायद वह अपने आपको अपमानित महसूस करेगी। जो कि अन्य छात्रोें से कम उपलब्धि के कारण वह पहले से ही करती है। उसने अपने आप से प्रश्न किया कि इतना अध्ययन करने पर भी उसके सर्वाधिक अंक क्यों नही आते? उसके अन्र्तमन ने उसे समझाने का प्रयास किया कि शायद इसलिये कि वह बहुत से छात्रों ने यहाॅं से स्नातक की पढ़ाई की है .............. बहुतों के भाई-बहिन, मम्मी पापा यहाॅं से पढ़े हैं ........... इसलिये वे यहाॅं की शिक्षा प्रणाली से अवगत है........... उपलब्धि इन सब बातों से भी तो प्रभावित होती हैं। सोचते सोचते वह अतीत में चली गयी............. उसके साथ भी जो छात्रायें पढ़ती थीं शायद किसी को घर का काम करना होता होगा ............ किसी को छोटे भाई-बहिन की देखभाल करनी होती होगी ............... किसी का घर एक कमरे का होगा .............. कहीं ज्यादा रिश्तेदार आते होगें........... उसके साथ ऐसा कोई बन्धन न था। शायद इसलिये उपलब्धि में वह आगे और अन्य छात्रायें उससे पीछे थीं। सोचतें सोचतें उसकी आॅंखे नम हो गयी। आॅंखों के पानी में उसका घमंड बह गया। इस परिसर ने उसे व्यवहारिक डिग्री से अलंकृत किया।

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