Wednesday, 9 November 2016

CONCEPT MAPPING AS A SUCCESSFUL TOOL FOR TEACHING , LEARNING AND EVALUATION IN PRIMARY GRADES (ARTICLE)

मित्रों,
आज की सुबह बड़ी खुशनुमा रही। डाकिये ने खाकी रंग का आयताकार लिफाफा दिया। खोला तो उसमें प्रतिष्ठित जर्नल प्राइमरी टीचर(अप्रैल-जुलाई 2015) यह जर्नल राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित होता है। इसमें मेरा लेख भी छपा है। 
यह लेख बच्चों के  उप योगी शिक्षणअधिगम एवं मूल्यांकन की एक नई तकनीक से सम्बन्धित है। आप लोग भी पढ़िये और अधिक से अधिक ‘शेयर’ कीजिये।















Tuesday, 8 November 2016

लैंगिक समानता आधारित समाज के लिए पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकों में सुधार जरूरी
डाॅ0 रत्ना गुप्ता

14 अप्रैल को डाॅ0 बी0आर0 अम्बेडकर का जन्म दिवस है उन्होने अपने हिन्दू कोड बिल में उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की थी, लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्त करने के 68 वर्ष बाद भी हम उनके लैंगिक समानता आधारित समाज के स्वप्न को साकार नही कर पाये हैं इसका कारण है शैक्षिक लिंग भेद। डिस्ट्रिक्ट इन्फार्मेशन सिस्टम फाॅर एजूकेशन (2011-12) की रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं की साक्षरता 65.5ः और पुरूषों की 82.2ः है प्राथमिक स्तर पर लड़कियों का नामांकन 48.35ः और उच्च स्तर पर 17ः जबकि लड़कों का 20ः है। आल इण्डिया सर्वे आन हायर एजूकेशन 2010-11 के अनुसार स्नातक एवं परास्नातक पाठ्यक्रमों में लड़के एवं लडकियों का नामांकन क्रमशः 45ः एवं 55ः, जबकि पी0एच0डी0 में, 62ः एवं 38ः है।
जेण्डर गैप रिपोर्ट (2015) के अनुसार 145 देशों में भारत की श्रेणी, महिलाओं की शैक्षिक उपलब्धि में 125वीं है और राजनीति में नौवीं है। वास्तव में महिला भारत में राजनैतिक दृष्टि से बड़ी सशक्त है। विभिन्न राज्यों में सर्वोच्च राजनैतिक पदों पर महिलाओं की उपस्थिति इसे विश्व में दूसरा स्थान दिलाती है। अमेरिका जैसे प्रगतिशील देशों में भी अभी तक सर्वेाच्च राष्ट्रपति पद पर महिला आसीन नही हुयी है जबकि हमारे यहाॅं प्रतिभा देवी सिंह पाटिल पहले ही राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर चुकी है। 
वर्तमान में मानव संसाधन एवं विकास मन्त्रालय स्मृति ईरानी के पास है अर्थात एक महिला के हाथों में ही महिलाओं को शिक्षित  करने की जिम्मेदारी है लेकिन सर्वोच्च पदों पर महिलाओं के होने के बावजूद भी आम महिलायें शैक्षिक रूप से पुरूषों के बराबर सशक्त नही हो पा रही है और हम ‘प्लेज फाॅर पैरिटी’ को पूरा नही कर पा रहें है।  
आखिर कारण क्या हैं? आइये देखते हैं। 
हमारी संस्कृति में विवाह अनिवार्य माना जाता है, विवाह न करने पर महिला को सम्मान की दृष्टि से नही देखा जाता। कई इलाकों में तो आज भी बाल-विवाह प्रचलित है इसके अतिरिक्त हमारे यहाॅं विवाह की आयु 18 वर्ष है, यह वह उम्र है जब तक शिक्षा पूरी नही हो पाती, इस प्रकार विवाह की अनिवार्यता और कम उम्र में विवाह महिलाओं को शिक्षा के अधिकार से वंचित कर देता है मुथेजा, पापुलेशन फाउन्डेशन आॅफ इण्डिया, की निर्देशक के अनुसार, ‘‘विवाह पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं के भविष्य को अधिक सीमित कर देता है। 
दूसरा कारण हमारे समाज में दहेज प्रथा का अनेक सरकारी प्रयासों के बावजूद, आज भी प्रचलित होना है। दहेज के बोझ की वजह से माता-पिता लड़कियों की पढ़ाई पर अधिक खर्च नहीं करना चाहते क्योंकि वे जानते है कि उनकी लड़की चाहें कितनी भी सुशिक्षित  क्यों न हो, सुयोग्य वर के लिये उन्हे विवाह पर विपुल धन खर्च करना ही होगा।
तृतीय कारण हमारा पुरूष सत्तात्मक समाज है। हमारे यहाॅं महिलाओं का प्रथम दायित्व गृह-कार्य और बच्चों की परवरिश समझी जाती है, नौकरी करना आवश्यक नही समझा जाता। यह परम्परागत सोच भी महिलाओं की शिक्षा में बाधक है। 
साथ ही साथ विद्यालयों का पहुॅंच से बाहर होना, जहाॅं न बिजली है न आवागमन की सुविधायें है, सभी विद्यालयों में महिला प्रसाधन का न होना और महिला शिक्षकों की सहभागिता अनुपात से कम होना भी महिलाओं के अशिक्षित होने के कारण हैं क्योंकि इन्फार्मेशन सिस्टम फार एजूकेशन (2011-12) की रिपोर्ट के अनुसार, 72.16 प्रतिशत विद्यालयों में महिला प्रसाधन है लेकिन प्राथमिक स्तर पर यह प्रतिशत 65.4 है। महिला शिक्षकों का प्रतिशत प्राथमिक स्तर पर 46.27 है तथा आल इण्डिया सर्वे आॅफ हायर एजूकेशन के अनुसार ‘‘उच्च स्तर पर 59 प्रतिशत महिला शिक्षक हैं। बहुत से अभिभावक पुरूष शिक्षकों से अपनी बेटियों को पढवाना पसन्द नही करते तथा बहुत सी लड़कियाॅं स्वयं भी पुरूष शिक्षकों से पढ़ने में संकोच करती है।
इसके अतिरिक्त महिला हिंसा, निम्न स्वास्थ्य स्तर, जागरूकता की कमी और जेन्डर वायज्ड पाठ्य पुस्तकें भी महिलाओं की शिक्षा के अवरोधक हैं, एन0सी0ई0आर0टी0 की प्राथमिक स्तर की पाठ्यपुस्तकों का लैंगिक विष्लेषण दर्शाता है कि 18 पुस्तकों में महिलाओं को नर्स, शिक्षिका और गृहणी की परम्परागत भूमिकाओं में, जबकि पुरूषों को मुख्य व्यवसायिक भूमिकाओं में चित्रित किया गया है। 
इन चुनौतियों पर विजय पाने के लिये विवाह के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा, विवाह की आयु बढ़ानी होगी, समाज को लड़कियों के प्रति संवेदनशील बनाना होगा, इसके लिये शैक्षिक एवं सामाजिक स्तर पर ‘जेन्डर सेन्सटिव ट्रेनिंग प्रोग्राम’ की शुरूआत करनी होगी। साथ ही साथ विद्यालयों को महिलाओं की पहुॅंच में लाना होगा, महिला शिक्षिकाओं की अधिकाधिक नियुक्ति करनी होगी, विद्यालयों में प्रसाधन सुविधाओं को सुनिश्चित करना होगा पाठ्यक्रम में आत्मरक्षा एवं स्वास्थ्य कार्यक्रमों एवं महिला जागरूकता कार्यक्रमों को सम्मिलित करना होगा, पाठयपुस्तकों को सुधारना होगा जो महिलाओं को कमजोर तरीके से चित्रित करती है तथा इनमें ऐसी विषय वस्तु को स्थान देना होगा जो महिलाओं को प्रेरित एवं सशक्त कर सके जैसे, विकसित देशों में महिलाओं की दशा, महिला अधिकार एवं कानून, महान महिलाओं की जीवनियाॅं, महिला सशक्तीकरण की आवश्यकता आदि, तभी हम शैक्षिक लिंग भेद को मिटा पायेगें तथा अम्बेडकर के लैंगिक समानता आधारित समाज के स्वप्न को साकार कर पायेगें। यही उनके जन्मदिवस पर उन्हे सच्ची पुष्पांजलि होगी।
स्वतन्त्र भारत शाहजहाॅंपुर समाचार पत्र में 16 नवम्बर 2016 को प्रकाशित

चुनाव रैली
चुनाव  का समय था। नेशनल पार्टी की जिला स्तरीय रैली थी। रैली को सम्बोधित करने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष आ रहे थे। पंडाल में लोगों की संख्या कम थी। जिला अध्यक्ष चिन्तित थे। उन्होने अपने एक अनुचर के कान में कुछ पंूछा, अनुचर ने बहुत धीरे से कहा, ‘‘साहब! मजदूरों को बुलाया है’’। 


बहू की समझदारी
दीनानाथ की दोनो किडनी खराब हो गई। उनके आर्थिक हालात अच्छे न थे। इलाज की समस्या थी। दीनानाथ की बहू ने दीनानाथ की पत्नी से कहा, ‘माता जी! बाबू जी बीमार हैंे........। घर में बहुत लोगों का आना जाना रहता है............. आभूषण लाॅकर में रखवा दीजिये।’ दीनानाथ और दीनानाथ की पत्नी ने बहू की तरफ विचित्र नजरों से देखा। 

Friday, 4 November 2016

       जेन्डर समानता के अग्रदूत थे गाँधी
                                      (गाँधी जयन्ती पर विशेष)
डाॅ0 रत्ना गुप्ता
(स्तंभकार एवं कहानीकार)
              लिंग के आधार पर स्त्री और पुरूष पर भूमिकाओं, जिम्मेदारियों, क्षमताओं, आकांक्षाओं, कौशलों और व्यवहार का ठप्पा लगा देना जेन्डर है और इस ठप्पे के आधार पर स्त्री और पुरूषों से अलग-अलग अपेक्षाएं करना, जेन्डर स्टीरियोटाइपिंग है इस जेन्डर स्टीरियोटाइपिंग की वजह से हम जेन्डर-पक्षपात करने लगते हैं। जेन्डर असमानता जेन्डर पक्षपात का परिणाम है। जेन्डर असमानता आज एक वैश्विक मुद्दा है। थर्ड वल्र्ड कान्फ्रेन्स आन वूमेन बीजिंग में महिलाओं पर हुये तीसरे वैश्विक सम्मेलन से लेकर 2000 में हुये वैश्विक शिक्षा फोरम, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 तथा तत्पश्चात राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 इत्यादि सभी में जेन्डर समानता पर विशेष बल दिया गया है। अभी हाल ही में राष्ट्रीय शिक्षा शिक्षा परिषद (एन.सी.टी.ई.) के लिए जारी किये गये राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा में एक विषय जेन्डर, स्कूल एवं सोसाइटी भी सम्मिलित किया गया है इन सभी प्रयासों का उद्देश्य जेन्डर समानता लाना है क्योंकि जेन्डर असमानता समाज में बहुत सी बुराइयों की जननी है, जैसे कन्या भू्रण हत्या, महिला हिंसा इत्यादि। इसका ताजा तरीन उदाहरण है पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में दो दिनों में चार लड़कियों को उनके सिरफिरे आशिकों द्वारा बेहद हिंसक तरीके से मारा जाना। एक को सरेआम चाकू मारे गये, दूसरी को भीड़ के बीच सड़क के किनारे बाईस बार कैंची घोपी गयी, तीसरी को गोली मार गयी लेकिन उसके लाॅकेट ने उसे बचा लिया और चैथी को तीसरी मंजिल से फेक दिया गया। ये लड़किया इसलिए मारी गयी क्योंकि इन्होंने अपने आशिकों के प्रेम निवेदन को ठुकरा दिया। कोई लड़की किसी के प्रेम को ठुकरा सकती है ऐसे व्यवहार की अपेक्षा आज के दौर में भी लड़के नहीं करते और जब ऐसा होता है तो उनके अहंकार को चोट पहुंचती है और वे हिंसक हो जाते हैं। इसके मूल में समस्या जेन्डर की है जो कि सामाजिक प्रक्रिया है इन लड़कों का समाजीकरण इस तरह हुआ होगा कि उनके लिए लड़कियों, को ‘न’ अपेक्षातीत थी। वे उनसे एक निश्चित भूमिका का निर्वहन चाहते थे अर्थात वे उनसे सिर्फ अपने निवेदन के लिए ‘हाँ’ चाहते थे।
2 अक्टूबर को सत्य और अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी का जन्म दिवस है। आज जिस जेन्डर  समानता की बात हो रही है। गाँधी जी इसके अग्रदूत थे। वे मानते थे कि पुरूष जाति की सबसे भयंकर दुःखदायी तथा पाश्विक भूल नारी के साथ किया गया अन्याय है। उनका विश्वास था कि जब नारी को संसार में पुरूष ही के समान अवसर मिलने लगेगा और पुरूष और नारी दोनों मिलकर परस्पर सहयोग करते हुये आगे बढ़ेंगे तब उसके चमत्कारपूर्ण वैभव का दर्शन होगा। स्त्री जाति को शक्ति और महन्ता के बारे में गांधी जी की सोच जेन्डर मुक्त थी। उन्होंने इसके प्रत्यक्ष उदाहरण भी प्रस्तुत किये। जब तक उन्होंने इस देश के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश नहीं किया था स्त्री शक्ति मानो सोयी पड़ी थी। निसंदेह वह गृहलक्ष्मी और माता के रूप में हमारे पारिवारिक जीवन को प्रकाशित, सुशोभित और मंगलमय कर रही थी किन्तु उसकी अन्य लोकोपकारिणी शक्तियों को प्रकट होने का अवसर अभी नहीं मिल पाया था। यह गांधी जी के कार्यकाल में मिला। स्वाधीनता युद्ध में उन्होंने महिलाओं को परम्परागत भूमिका से इतर भूमिका निर्वहन के लिये प्रेरित किया। परिणामस्वरूप, असंख्य महिलाएं पर्दे और अन्तःपुर से बाहर निकल पड़ी और स्वातंत्रय यज्ञ में अपना-2 हविर्भाव अर्पण करने की होड़ करने लगी। कहीं-कहीं तो वे पुरूषों से भी आगे बढ़ गयीं। उन्होंने शराब और विदेशी कपडे़ की दुकानों के सामने धरना दिये। धारासना और बढ़ाला के नमक सत्याग्रह में वीरता का परिचय दिया। गांधी जी ने नारी जगत में एक चेतना उत्पन्न कर दी स्व. श्रीमती रामेश्वरी नेहरू, सरोजिनी देवी, विजयलक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृतकंुवर, सुचेता कृपलानी, सुशीला नायर और मणिबहन पटेल के नाम, तो केवल भारत में ही नहीं, बाहर के लोग भी जानते हैं। इनके अलावा स्वाधीनता युद्ध के दिनों में कहाँ-2 कितनी महिलाऐं जेल गयीं तथा देश के विभिन्न भागों में अपनी-अपनी रूचि के सेवा कार्यों में लग गयीं उनकी गिनती नहीं की जा सकती।
वास्तव में संसार के अन्य देशों में पुरूषों के समान मताधिकार प्राप्त करने के लिए स्त्रियों को जाने कितने वर्ष राह देखनी पड़ी। परन्तु भारत में स्वतंत्रता की घोषणा के साथ ही एकदम सहज और स्वाभाविक रूप में स्त्रियों को समान अधिकार प्राप्त हो गये। इतने बड़े देश की प्रधानमंत्री बनने का गौरव तो सबसे पहले भारतीय नारी को प्राप्त हुआ आज भारत के सार्वजनिक जीवन में जितनी महिलाएं भाग ले रही हैं इन सबके मूल में गांधी जी का ही प्रभाव है। अगर हम सर्वोदय के मसीहा का जन्म दिवस सच्चे अर्थों मे मनाना चाहते हैं तो हमें जेन्डर की समस्या का हल करना होगा। इसके लिए हमें लोगों को जागरूक करना होगा, जेन्डर सेन्सिटाइजेशन प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करने होंगे, इन कार्यक्रमों का प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित करना होगा, पाठ्य पुस्तकों का विश्लेषण जेन्डर के दृष्टिकोण से करना होगा, दृश्य-श्रव्य मीडिया को जेन्डर सेन्सिटिव बनाना होगा, जेन्डर मुद्दे उठाने होंगे, विद्यालयों में पाठ्यसहगामी कार्यक्रमों जैसे नाटक, कविता, कहानी, गीत आदि के माध्यम से छात्रों के दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा, विश्वविद्यालय स्तर पर जेन्डर मुद्दों पर शोध कार्यों को बढ़ावा देना होगा तभी हम एक जेन्डर फ्री समाज की कल्पना कर सकते है। ऐसा कब होगा, यह भविष्य के गर्भ में है।

Monday, 17 October 2016

गौरैया दे गयी वास्तविक आनन्द
डाॅ0 रत्ना गुप्ता
(स्तम्भकार एवं कहानीकार)
जेठ की चिलचिलाती गर्मी थी। धूप आंगन में पसर रही थी। मेरी कक्षा आठ की परीक्षायें समाप्त हो गयीं थीं। मैं छुट्टियों का लुत्फ उठा रही थी, .............. कमरे में डबल बेड के सिरहाने पीठ सटाकर दोनों पैर फैलाये बैठे हुये .......... खुली आॅंखों से स्वप्न देखते हुये। पंखा सर-सर-सर-सर चल रहा था। तभी मैनें देखा कि एक गौरैया गर्मी से व्याकुल छाॅंव की तलाश में कमरे के ऊपरी झरोखे में आकर बैठ गयी। उसने इधर-उधर कई बार देखा फिर कमरे के अन्दर आकर जमीन पर इधर उधर फुदक-फुदक कर अपनी उदर पूर्ति के लिए दाना और आशियाने के लिए तिनका तलाशने लगी। मै डर गई कि कहीं ये गौरैया पंखे की चपेट में ना आ जाये। मंै जल्दी से उठी, दीवार पर लकड़ी के बोर्ड में लगे पंखे के बटन को बंद किया और अपनी जगह आकर पुनः बैठ गयी। कुछ देर बाद चिड़िया अपनी चिमटी जैसी चोंच में तिनका दबाकर पंख फड़फड़ाकर उड़ी, पंखे के नीचे-नीचे कमरे का एक चक्कर लगाया और जिस झरोखे से आई थी उसी से बाहर चली गयी। मैं तपाक से उठी और मैंने पंखे का बटन दबा दिया। मैंने राहत की साॅंस ली क्योंकि इतनी देर में मैं पसीने से तर-ब-तर हो गयी थी। लेकिन तभी मेरी नजर अचानक रोशनदान पर पड़ी ............ ये क्या ......! चिड़िया पुनः वहाॅं बैठी थी।
इस बार मेरी पंखे का बटन बंद करने की कोई इच्छा न थी। लेकिन मैं अपने आप को रोक न सकी। मैनें पंखें का बटन बन्द कर दिया। पंखे की गति धीमी होते होते इतनी धीमी हो गयी कि उसके तीन पंख अलग-अलग दिखाई दे रहे थे। गौरैया पूर्ववत फर्श पर बैठी, इधर उधर अपनी स्प्रिंग जैसे गर्दन घुमायी, फुदकते हुये एक तिनका अपनी चोंच में दबाया और पंख फड़फड़ाकर फुर्रऽऽ से उड़ी। लेकिन ये क्या .................! इस बार उससे चूक हो गयी ................... वह पंखे के धीमे-धीमे घूमते परों से टकराकर धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ी। मेरा बाल-मन व्यथित हो उठा। मैने पास आकर देखा और महसूस किया कि वह जिन्दा है, लेकिन यान्त्रिक राक्षस के द्वारा चोटिल होने की वजह से उड़ने में असमर्थ है। मैेंने चावल के कुछ दानें लाकर, अखबार पर, उसके आगे रख दिये और वहीं पर पानी की कटोरी भी। मेरी उपस्थिति में उसने कुछ नही खाया पिया। शायद वह भयभीत थी। लेकिन जब मैं वहाॅं से चली गयी तो उसने चावल के दानें भी खाये और पानी भी पिया। मैं यह सब बाहर खिड़की से झाॅंककर देख रही थी। मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था ................. इतना अच्छा कि जितना पहले कभी नही लगा था। मैने कमरे का दरवाजा ढुलका दिया क्योंकि मेरे घर एक काली बिल्ली आती थी। मुझे डर था कि कहीं बिल्ली चिड़िया को न खा जाये। मेरा भाई जो मुझसे 6 वर्ष छोटा था, बार बार आता और दरवाजा खुला छोड़कर चला जाता पर मंैने हार नहीं मानी ................... मैं दरवाजा ढुलकाती रही.....एक सजग प्रहरी की तरह उसकी रक्षा करते हुये। 
रात्रि को मैं कमरे का दरवाजा ढुलकाकर छत पर सोने चली गयी। सुबह जैसे ही मेरी आॅंख खुली मै जीने की सीढियाॅं सर-पट-सर-पट उतरते हुये कमरे में पहुॅंची ................. पर ये क्या ...............! चिड़िया अपनी जगह से गायब थी। एक क्षण को मैं डर गयी कि कहीं बिल्ली ....लेकिन दूसरे ही क्षण मैनें देखा कि चिड़िया रोशनदान में बैठी थी। शायद, मुझसे विदा लेने के लिये मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। वह मेरे जीवन का सबसे सुखद क्षण था। उस अनुभूति की अभिव्यक्ति कठिन है, पर मंैने वास्तविक आनन्द का अर्थ व्यावहारिक रूप में समझ लिया था।



Friday, 16 September 2016

काम आई माँ की सीख ( कहानी )

काम आई माॅं की सीख
माॅं रसोई में थी। मेरी छोटी बहिन तनु स्कूल से घर आयी। कंधे पर स्कूल बैग टांगे, हाथ में पानी की बोतल लटकाये, पसीने से लथपथ, थकी हारी सी मानो कि दुनिया के सारे कष्ट सहकर आयी हो। माॅं दौड़कर पानी लेकर आयी और उसे अपने हाथों से पानी पिलाने लगीं, प्यार भरी नजरों से उसे एक टक निहारिती हुई। जैसे-जैसे तनु पानी पी रही थी, माॅं के चेहरे पर चमक आ रही थी, जैसे कि तनु का हर घॅूंट माॅं की प्यास बुझा रहा हो। इतने में आया तनु के कपड़े लेकर आ गई और बोली, ‘बीबी जी! हम बदल देते हैं बिटिया के कपड़े’ माॅं ने कहा, ‘नही, तुम रसोई देखो’ और इतना कहकर उसके हाथ से कपड़े ले लिये। आया रसोई में चली गई माॅं ने तनु के सिर से आसमानी कलर के हेयरबैन्ड में लगी पतली काली चिमटियाॅं निकालीं और ड्रेसिंग टेबिल का ड्रार खींचकर उसमें रख दीं। हेयर बैण्ड निकाला उसे ड्रेसिंग टेबिल की साइड की अल्मारी में रखा और आई कार्ड निकालकर दीवार की कील पर टांग दिया। एक एक करके टाॅप के बटन खोले और गले के ऊपर से टाॅप उतारा और स्कर्ट का हुक खोल कर पैर के नीचे से स्कर्ट निकाला। जब माॅं तनु के कपड़े बदल रहीं थीं तो उनका संवाद तनु से जारी था कभी शाब्दिक और कभी अशाब्दिक। माॅं ने तनु से पूछा, ‘बेटा! आज स्कूल में क्या-क्या हुआ।’ तनु बोली, ‘मम्मीऽ...... पता है...., आज स्कूल में पावनी से मेरा झगड़ा हो गया।’ ‘वो क्यों,’ माॅं ने पूछा। ‘क्योंकि वह मेरी जगह पर अपनी काॅपी रखे जा रही थी........। वह मेरी मेज की पार्टनर है न.......... जब मैने पावनी से कहा........ मेरी तरफ क्यों रख रही हो........? अपनी तरफ रखो अपनी कापी........, तो इसी बात पर उसने मुझसे कट्टी कर ली।’
माॅं ने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा और उसके पैर से काले चमड़े के जूते निकालकर, उसके सफेद रंग के घुटने तक के मोजे हाथ से गोल गोल घुमाती हुयी उतारने लगीं और दोनो मोजों को जूतों में लगा दिया। वे ऐसे लग रहे थे मानों टूटे गोलों के दो टुकड़े हों।
माॅं ने तनु को काली स्कर्ट और ग्रे टाप पहना दिया और आया को आवाज लगायी, ‘‘तनु की ड्रेस तह बनाकर अलमारी में रख दो।’’ आया आयी और ड्रेस लेकर चली गई। माॅं ने तनु से कहा ‘हाथ मुॅंह धो लो। आॅंखों में पानी डालकर आॅंखों को अच्छी तरह धो लेना।’ तनु ने अच्छी बच्ची बनकर माॅं की बात मान ली। माॅं ने टाॅवेल से धीरे धीरे उसका मुॅंह पोंछा और उसे अपने अंक में भर कर सोफे पर बैठ गयीं। माॅं ने तनु से कहा, ‘तनु बेटा........!   गलती तो पावनी की है .......लेकिन तुम्हारे कहने का तरीका गलत था। तुम्हे इस तरह पावनी से नही कहना चाहिये था। अगर तुम दूसरे तरीके से उससे यह बात कहतीं, तो उसे बुरा नही लगता’, तनु ने पूछा, ‘कैसे कहती मम्मी?’ माॅं ने कहा ‘प्लीऽऽज, थोड़ा सा अपनी पुस्तक उधर कर लो.........! मुझे बहुऽत परेशानी हो रही है।’ ‘तो क्या वह मेरी बात मान जाती?’
तनु ने पूॅंछा ‘हाॅं’, माॅं ने आश्वस्त होकर कहा। तनु धीरे धीरे अपना सिर माॅं की गोद में रखकर लेट गई। माॅं उसके बालों में बड़े प्यार से हाथ फिराते हुये बोली, ‘तनु! तुम्हे अच्छा नही लग रहा होगा कि पावनी से तुम्हारी बोल चाल बन्द हो गई।’ ‘हाॅं बिल्कुल नही’, तनु ने कहा। ‘इसी प्रकार पावनी को भी अच्छा नही लग रहा होगा।’ माॅं ने कहा, ‘कल तुम उससे जाकर मिल्ला कर लेना’। ‘मैं क्यों मिल्ला करूॅं........? गलती तो उसकी है‘, तनु बोली ‘तभी तो जरूरी है कि तुम मिल्ला करो। क्योंकि जिसकी गलती होती है उसे मिल्ला करने में शर्म महसूस होती है।’ ‘सऽच मम्मी’, तनु ने विस्मित होकर कहा।
तनु को माॅं की बात समझ आ गई। उसने दूसरे दिन पावनी से जाकर मिल्ला कर ली। अगली बार कक्षा-कक्ष में तनु की मेज की पार्टनर अनन्या थी तो उसने भी मेज की अधिक जगह घेर ली और जब तनु को परेशानी हुई, तो उसे माॅं की बतायी सीख याद आ गयी। इसलिये उसने अनन्या से बड़े मधुर स्वर में कहा ‘बहुत परेशानी हो रही है अनन्या! प्लीज, अपनी काॅपी थोड़ा अपनी तरफ कर लो।’ अनन्या ने तनु की बात सहर्ष मान ली। इस प्रकार, इस बार माॅं की दी हुई सीख से तनु की समस्या भी हल हो गयी और अनन्या से उसका मनमुटाव भी नही हुआ।
आज मै बड़ा हो गया हूॅं। आज मै समझ सकता हूॅं कि माॅं ने आया से तनु की पोशाक न बदलवाकर स्वयं क्यों बदली। माॅं आटे के सने हाथ झटपट झटपट धोकर आयीं और तनु की पोशाक बदलने लगीं। शायद वह तनु की पोशाक बदलते बदलते उससे संवाद करना चाहतीं थीं। तनु के अन्र्तमन में प्रवेश करके उस दिन के सम्पूर्ण घटनाक्रम और उस घटनाक्रम में तनु के व्यवहार के विषय में जानना चाहतीं थीं............। उसे सही मार्गदर्शन देकर बड़े सहज भाव से उसे मानवीय गुणों से सिचिंत करना चाहती थी। वे सफल रहीं। इस घटना के माध्यम से उन्होने तनु में विनम्रता, संवेदनशीलता और मधुर संवाद जैसे बहुमूल्य गुणों को आत्मसात करा दिया जिनका चारों ओर आज मुझे नितान्त अभाव दिखाई देता है। अगर माॅं ने आया से तनु की पोशाक बदलवायी होती तो वह उस दिन के घटनाक्रम से कुछ न सीख पायी होती। माॅं का सानिध्य और संवाद ही क्षरण होते मूल्यों से हमारी पीढ़ी को बचा सकता है।



( वीथिका स्तम्भ, दैनिक जागरण, लखनऊ, 16 नवम्बर 2015 में प्रकाशित)



Wednesday, 14 September 2016

सुचना एवं तकनीकी के युग में हिंदी भाषा की चुनौतियाँ ( लेख )


                                   सूचना एवं संचार तकनीकी के युग में हिन्दी भाषा की चुनौतियाॅं 
                                                            (हिन्दी दिवस पर विशेष)
                                                                    डाॅ0 रत्ना गुप्ता
(शिक्षाविद्)
14 सितम्बर को हिन्दी दिवस है। इस दिन संविधान ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के अनुरोध पर  सम्पूर्ण भारत में यह दिन प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। 
हिन्दी भारत के एक बड़े जनसमूह की मातृभाषा है मातृ भाषा अपने मातृ-पिता से प्राप्त भाषा है। उसमें जड़ है, स्मृतियाॅं है व विंव भी। मातृभाषा को एक भिन्न कोटि का संास्कृतिक आचरण देती है। जो किसी अन्य भाषा के साथ शायद संभव नही है। मातृभाषा के साथ कुछ ऐसे तत्व जुड़़े होते है जिसके कारण उनकी संप्रेषणीयता उस भाषा के बोलने वाले के लिये अधिक होती है। 
आज सूचना संचार तकनीकी ने हिन्दी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। बहुमूल्य साहित्य अन्र्तजाल पर उपलब्ध है। हम अपने प्रिय साहित्यकार की रचना कभी भी कहीं भी पढ़ सकते है, जिन साहित्यकारों का साहित्य, अन्र्तजाल पर नही है उसको डिजिटलाइज्ड करने का प्रयास किया जा रहा है। अभी हाल ही में लखनऊ में आयोजित भगवतीवती चरण वर्मा के जन्म दिवस समारोह में उनके साहित्य को डिजिटलाइज्ड करने का आश्वासन दिया गया। इसके अतिरिक्त बहुत सी हिन्दी पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन भी आन-लाइन होता है जैसे हिन्दी संस्थान उत्तर प्रदेश, बाल वाणी और साहित्य भारती जैसी उत्कृष्ट पत्रिकाओं का प्रकाशन आॅन लाइन करता है। 
इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय स्तर की कुछ संस्थाऐं जैसे एन0ई0यू0पी0ए0, एन0सी0ई0आर0टी0, एन0सी0टी0ई0 भी हिन्दी भाषा में परिप्रेक्ष्य, आधुनिक भारतीय शिक्षा प्राथमिक शिक्षक और अन्वेषिका जैसे प्रतिष्ठित जर्नस का आन लाइन प्रकाशन करती है। फेसबुक और ब्लाग्स पर भी लोग लेखन कार्य करते है। जिससे नये लोग भी लिखने को प्रेरित होते है। हिन्दी सिनेमा ने भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बड़ी भूमिका निभाई है। वास्तव में कुछ हिन्दी कलाकार विदेशों में इतने लोकप्रिय है कि उनकी फिल्में देखने के लिये लोग हिन्दी सीखते है।ं लाखों रूसवासियों ने फिल्मों को समझने के लिए ही हिन्दी सीखी। रूस के पूर्व राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन का तो पसंदीदा गाना ही था ‘आवारा हूॅं।’ अमेरिका और जापान में भी हिन्दी सिखाने वाले स्कूलों में चर्चित हिन्दी फिल्मों के संवादों और गानों के माध्यम से हिन्दी सिखाई जाती है। लेकिन सूचना संचार तकनीकी का एक स्याह पक्ष भी है। इसने हिन्दी भाषा जैसे कौशलों को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। 
बात लेखन कौशल में गिरावट से शुरू करते है। संदेश और ई-मेल में अक्षरों की सीमा निश्चित होती है। इसलिये मितव्ययी भाषा का प्रयोग करते है इसके लिये स्लेंग शब्दों या वर्चुअल शब्दों का प्रयोग करते है। जल्दी की वजह से व्याकरण का ध्यान भी नही रखा जाता। बहुत से नवयुवक व्यवहार में भी इसी भाषा का प्रयोग करने लगते है। परीक्षा पुस्तिका में भी ऐसे उदाहरण देखने को मिल जायेगें। इस प्रकार आज की पीढ़ी की लिखावट त्रुटिपूर्ण हो रही है दूसरी बात लिखावट के सन्दर्भ में यह है कि हिन्दी के टंकण में अधिक समय लगता है इसलिये हिन्दी को अंगे्रजी में लिखते हैं अर्थात वाक्य विन्यास हिन्दी का होता है और लिपि अंग्रेजी की। साथ ही ब्लाग लिखने वाले सोचते हैं कि अगर वे अंग्रेजी में लिखते है तो उनका ब्लाग अधिक लोग पढ़ेगें तथा अंग्रेजी पत्रिका समाचार पत्र और जर्नल में प्रकाशन या यू-टयूब पर अंग्रेजी में लोड किया हुआ उन्हे अधिक बड़े दायरे में पहचान दिलाएगा। इसलिये वे लोग जो समान रूप से हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा पर अधिपत्य रखते है वे भी अंग्रेजी की ओर ही रूख कर रहे है। 
इन नकारात्मक प्रभावों से बचने के लिये शैक्षिक, सामाजिक एवं सरकारी प्रयास करने होगें। हिन्दी माध्यम के अच्छे स्कूल खोलने होगें, हिन्दी को विज्ञान आधारित बनाना होगा, हिन्दी पुस्तकों के प्रति नवयुवकों का रूझान बढाना होगा, इसके लिये सचल पुस्तकालयों के माध्यम से हिन्दी पुस्तकों को पाठकों के करीब लाना होगा एवं विद्यालयी एवं जन पुस्तकालयों में अधिकाधिक हिन्दी भाषा एवं साहित्य की पुस्तकें रखनी होगी। हिन्दी पुस्तक मेलों का जगह जगह आयोजन करना होगा। पाठ्यक्रम के अन्तर्गत हिन्दी पुस्तक मेलों के भ्रमण को अनिवार्य करना होगा, हिन्दी साहित्य, हिन्दी भाषा एवं व्याकरण तथा हिन्दी की रचनाओं के लिये दिये जाने वाले पुरस्कार सम्बन्धी विषय-वस्तु को सम्मिलित करना होगा, हिन्दी लेखन एवं वाचन प्रतियोगिताओं का आयोजन करना होगा, साहित्य के शिल्प पर कार्यशालाओं का आयोजन करना होगा एवं अधिकाधिक काव्य गोष्ठियों एवं काव्य सम्मेलनों का आयोजन करना होगा। समय-सारिणी में एक चक्र पुस्तकालय के लिये आबंटित करना होगा एवं पुस्तकालय में छात्रों की उपस्थिति को सुनिश्चित करना होगा। यह सब हमें प्राथमिक स्तर से ही शुरू करना होगा लेकिन सबसे पहले शिशुकाल से ही माता-पिता को बच्चों को टाटा, बाई-बाई, गुडमार्निंग के स्थान पर शुभ विदा, शुभ प्रभात कहना सिखाना होगा और हमें हिन्दी में हस्ताक्षर करने का प्रण लेना होगा। जब मोदी गुजराती प्रदेश छोडकर हिन्दी प्रदेश आ सकते है, जब हम 1857 की लड़ाई हिन्दी में जीत सकते है तो संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी की लड़ाई क्यों नही जीत सकते। हमें हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का पुनः प्रयास करना होगा एवं हिन्दी एक अविकसित भाषा है इस धारणा को दूर करना होगा। हिन्दी एक जानदार भाषा है, वह जितनी बढ़ेगी उतना ही देश का मान होगा। इसलिये हमें हिन्दी को गंगा नही बल्कि समुद्र बनाना होगा। 

Monday, 5 September 2016

डाॅ0 एस0 राधाकृष्णन युवाओं के पथ प्रदर्शक
(जन्म दिवस पर विशेष)
यह समाज एक बडे परिवार की तरह है जहाॅं कई धर्म और जाति के लोग एक साथ मिलकर रहते है लेकिन समाज बनाने का काम करते है। समाज के शिल्पकार यानि शिक्षक। शिक्षक समाज के ऐसे शिल्पकार होते है जो बिना किसी मोह के इस समाज को सजाते है। शिक्षकों की महत्ता को सही स्थान दिलाने के लिए ही हमारे देश में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पुरजोर कोशिशें की जो खुद एक बेहतरीन शिक्षक थे।
5 सितम्बर को डाॅ0 एस0 राधाकृष्णन का जन्म दिवस है। इस अवसर पर उनका व उनके दर्शन का स्मरण हो आना लाजमी है। विशेषकर तब, जबकि आज के युवा, आत्म विकास से वंचित, आत्म नियन्त्रण और आत्म-विश्वास से नदारद और मानवता से शून्य होकर पतन के गर्त में गिर रहे हों। ऐसे समय में उनका दर्शन युवाओं को एक दिशा देता हुआ प्रतीत होता है।
उनका यह मानना था कि-‘शिक्षक वह नही जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूंॅंसे बल्कि वास्तविक शिक्षक तो वह है जो आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करे।’
डाॅ0 राधाकृष्णन के ये शब्द समाज में शिक्षकों की सही भूमिका को दिखाते है। शिक्षक का काम सिर्फ किताबी ज्ञान देना ही ही नही बल्कि सामाजिक परिस्थितियों से छात्र को परिचित कराना भी होता है। ऐसे अनमोल विचार उनकी रचनाओं में यत्र तत्र बिखरे पड़े है जो वर्तमान में बड़े प्रासंगिक है।

डाॅ0 एस0 राधाकृष्णन का विश्वास था कि मनुष्य को आत्मिक विकास के लिये कुछ समय तक एकान्त में ध्यान लगाना चाहिए। सप्ताह में कम से कम एक दिन विश्राम और कुछ देर मौन रहना चाहिए।’ वर्तमान में मौन और विश्राम दोनो ही युवाओं की जीवन शैली से विलुप्त होते जा रहे है। कार्य-संस्कृति का युग है। युवा अधिक से अधिक काम करके, अधिक से अधिक भौतिक सुख प्राप्त करना चाहते है। वे मौन के समय भी मौन नही होते, कभी वाट्सऐप, कभी फेसबुक, कभी ट्विटर के माध्यम से उनकी संचार प्रक्रिया सदैव चलती रहती है। सुबह उठकर वे धार्मिक व आध्यात्मिक क्रियाओं के स्थान पर सर्वप्रथम वाट्सऐप या फेसबुक का एकाउन्ट खोलते हंै, और कभी-कभी तो रात को उठकर भी। वे मशीनी युग में जी रहे हैं और स्वयं के जीवन के प्रति भी संवेदनशील नहीं हैं। वे क्या चाहते है उनके पास इस विषय पर सोचनें का भी समय नहीं है। ऐसे समय में युवाओं को एस0राधाकृष्णन की सीख को व्यवहार में लाने की जरूरत है।
आज की पीढ़ी में आत्म नियन्त्रण की कमी है मन वाणी और कर्म पर नियन्त्रण नहीं है। अहंकार बहुत अधिक है। अपने अहं की तुष्टि के लिए यह पीढ़ी किसी भी हद तक गिर जाती है। कभी-कभी तो वह मानवता की नृशंस हत्या करने से भी पीछे नही रहती। ऐसे समय में एस0राधाकृष्णन के विचार कि मनुष्य आत्म नियन्त्रण के द्वारा ही अपनी मंजिल तक पहुच सकता है और अपने अहं को मिटाना ही मुक्ति का मार्ग है, बड़े समसामायिक एवं ग्रहणीय लगते हैं। इतना ही नही आज सफलता जैसे ही युवाओं के हाथ लगती है उनके पैर जमीन पर नही रहते वे आसमान में उड़ने लगते हैं। परिणामस्वरूप उनके मित्र, शुभचिन्तक आदि उनसे दूर होते जाते है। और इसकी परिणति अकेलेपन के रूप में होती है। अपनी खुशी और दुखः साझा करने के लिये उनके पास अपने नहीं होते। परिणामस्वरूप शनैः-शनैः वे अवसाद के शिकार होते जाते हैं। इसलिये एस0 राधाकृष्णन युवाओं को आकाश में उड़ते हुये भी अपने पाॅंव जमीन पर दृढ़ता से जमाये रखने के लिए सचेत करते हैं।
एस0र ाधाकृष्णन मानवता के पुजारी है वह युवाओं को समझाते है ‘हमारी मानवीय प्रकृति हमेशा एक है, उसकी आकाॅंक्षायें आदर्श हमेशा एक जैसे है चाहें चमड़ी अलग अलग क्यों न हो।’ आज युवा धर्म, जाति, संस्कृति, प्रान्त, सम्प्रदाय के नाम पर आपसी फूट का शिकार हैं, आये दिन संघर्ष व आन्दोलन होते हंै, जिनमें मानवता दम तोड़ती दिखती है। उ0प्र0 के मेरठ दंगे, दादरी काण्ड, कुलवर्गी प्रकरण इसके ताजा तरीन उदाहरण हैं। विश्व पटल पर फ्रांस में राष्ट्रीय दिवस पर हुई आतंकवादी घटना इसका ताजा तरीन उदाहरण है। आज विश्व एकता खतरे में प्रतीत होती है, अतः एस0 राधाकृष्णन की विश्व मानव एवं नैतिक आन्दोलनों की संकल्पना स्वीकार्य लगती है। वे विश्व शान्ति को एक सपना नही आवश्यकता मानते थे।
आज की युवा पीढ़ी को डाॅ0 एस0 राधाकृष्णन के विचारों से सीख लेने की जरूरत है। उनके विचारों को अपनाकर यह पीढ़ी सफलता के अनन्त आकाश में अबाध गति से विचरण कर सकती है और शाइनिंग इण्डिया और मेक इन इण्डिया का सपना सच कर सकती है। आइये मिलकर मनुष्य बनने का संकल्प ले क्योंकि ‘मानव दानव बन जाता है तो यह उसकी हार है अगर महामानव बन जाता है तो यह चमत्कार है और मानव मनुष्य बन जाता है, तो यह उसकी जीत है’। आइये मिलकर इसी ‘जीत’ का स्वप्न देखें और इसे साकार करें तभी सच्चे अर्थों में हम डाॅ0 राधाकृष्णन का जन्म दिवस मनायेगें।

(आज के स्वतन्त्र भारत में प्रकाशित लेख)





Saturday, 27 August 2016

मातृत्व अवकाश की समय सीमा बढ़ाना प्रासंगिक
संसद के इस मानसून सत्र में मातृत्व अवकाश सम्बन्धी विधेयक पारित हो गया। इसमें निजी कंपनियों की महिला कर्मचारियों के लिए मातृत्व अवकाश 12 सप्ताह के स्थान पर 26 सप्ताह करने का प्रावधान है यानि महिलाओं को अब साढ़े छह महीने की छुटटी मिलेगी।
विधेयक में 50 से अधिक कर्मचारियों वाले संस्थानों के लिये शिशु कक्ष की व्यवस्था करना अनिवार्य होगा। कानून का उल्लंघन करने वाले नियोक्ताओं को जुर्माने के अलावा एक साल तक की सजा का प्रावधान है।
यह उन सामाजिक संगठनों की जीत है जो स्त्रियों के हक की आवाज को बुलन्द करते हुये मातृत्व अवकाश की अवधि बढ़ाने की मांग कर रहे थे। इस मसले को लेकर पूरे विश्व में बहस चलती आई है। इसके पक्षधर मानते है कि संतानोत्पत्ति को भी उत्पादन का हिस्सा मानना चाहिये और स्त्री को इसके लिये पर्याप्त सुविधा देनी चाहिए।
भारत जैसे देश में जहाॅं नारी देवी तुल्य और शिशु जन्म देव इच्छा माना जाता है, सरकार का यह कानूनी कदम मातृत्व एवं शिशु देखभाल की दिशा में सराहनीय एवं स्वागत योग्य है क्योंकि भारत में नौकरी पेशा महिलाओं को दिया जाने वाला मातृत्व अवकाश कई छोटे देशों में दिये जाने वाले अवकाश से बहुत कम है। आर्गनाइजेशन फाॅर इकोनोमिक्स कारपोरेशन डेवलेपमेन्ट की दिसम्बर 12, 2013 की रिपोर्ट के अनुसार हंगरी डेढ वर्ष का मातृत्व अवकाश प्रदान करता है तथा साथ ही पोलैण्ड, स्पेन, चेक रिपब्लिक, जर्मनी, हंगरी, फ्रंास और फिनलैण्ड तीन या अधिक वर्ष का प्रोटेक्टेड अवकाश भी प्रदान करते है। प्रोटेक्टेड अवकाश माता पिता को शिशु की देखभाल के लिए बिना नौकरी खोने के भय के, नौकरी से अलग रहने की अनुमति प्रदान करता है।
मातृत्व अवकाश की समय सीमा बढ़ाने के सन्दर्भ में अन्य तर्क यह दिया जा सकता है कि आजकल संयुक्त परिवार की संस्कृति विलुप्त होती जा रही है, और एकल परिवार की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है जो पहले से ही बहुत अधिक है। एकल परिवारों में शिशु की देखभाल के लिए कोई नही होता। कभी-कभी तो पति-पत्नी के कार्य स्थल भी अलग-अलग होते हैं जिसके चलते महिला को अकेले ही शिशु की देखभाल करनी पड़ती है। मातृत्व अवकाश समाप्त होने पर माता को आया के सहारे नवजात शिशु को छोडकर कार्य-स्थल पर जाना पड़ता है। जिसका शिशु के सांवेगिक मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
इसके अतिरिक्त भारत में सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश इस तरह का है कि उच्च शिक्षा और अच्छी नौकरी के बाद भी शादी और मातृत्व के लिये न कहना कठिन है। बच्चों की परवरिश महिलाओं की जिम्मेदारी मानी जाती है और पुरूषों की नौकरी महिलाओं से ज्यादा जरूरी। स्वयं महिलाओं को मातृत्व जिम्मेदारी नौकरी से ज्यादा बड़ी लगती है। बहुत सी महिलायें मातृत्व प्रेम के चलते, नौकरी तक छोड देती है। कभी-कभी वे अवैतनिक अवकाश भी ले लेती है। जिससे उनकी पदोन्नति बाधित होती है और वरिष्ठता क्रम तथा मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। ऐसे उदाहरण भी सामने आते है कि मातृत्व अवकाश समाप्त होने पर जब महिला वापस नौकरी पर आती है तो उसे कमतर जिम्मेदारी और अपेक्षाकृत कम महत्व के प्रोजेक्ट दिये जाते है, क्योंकि वह ज्यादा घण्टे नही रूक सकती, उन्हे टीम की सबसे कमजोर कड़ी समझा जाता है। प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से उसके अधिकारी एवं सहयोगी उस पर फब्तियाॅं कसते है, जिससे उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुॅंचती है। एक बार पुनः वह मनोवैज्ञानिक शोषण का शिकार होती है।
इस कानूनी कदम से नौकरीपेशा महिलाओं को कुछ राहत अवश्य मिलेगी वे नौकरी छोडने को विवश नही होगीं तथा शाइनिंग इण्डिया तथा मेक इन इण्डिया का सपना साकार करने में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकेगी। लेकिन हर बात का एक स्याह पक्ष भी होता है इस कानूनी प्रयास ने मन में यह आशंका उत्पन्न कर दी है कि कहीं निजी संस्थान महिलाओं को नौकरी देना बन्द न कर दें। निजी संस्थानों का रवैया बड़ा खराब हैं वहाॅं तो मातृत्व अवकाश लेने की स्थिति में महिलाओं को अक्सर नौकरी छोडने को मजबूर होना पड़ता है। कई संस्थान इसी कारण महिलाओं को नौकरी देने से हिचकते है या उन्हे प्रेग्नेन्ट होते ही कोई बहाना बनाकर उन्हे निकाल देते है। भारत की टोटल वर्क फोर्स में महिलाओं की भागीदारी कम होने का यह एक बड़ा कारण है। सरकारी आॅंकडों के मुताबिक वर्ष 2004-05 में कुल श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी 29.4 फीसदी थी जो 2011-12 में घटकर 22.5 प्रतिशत रह गई। इसलिये सरकार को कुछ ऐसे उपाय करने होगें जिनसे न सिर्फ महिलाओं का रोजगार बना रहे बल्कि इसमें बढोत्तरी भी हो जिस तरह से सरकार ने पिछले साल कम्पनियों के बोर्ड में कम से कम एक महिला का शामिल रहना जरूरी बनाया था उसी प्रकार हर संस्थान के लिये महिला कर्मियों का एक निश्चित न्यूनतम प्रतिशत अनिवार्य बनाया जा सकता है।

Monday, 25 July 2016

लैंगिक समानता आधारित समाज के लिए पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकों में सुधार जरूरी
                                                                                                                 डाॅ0 रत्ना गुप्ता

14 अप्रैल को डाॅ0 बी0आर0 अम्बेडकर का जन्म दिवस है उन्होने अपने हिन्दू कोड बिल
में उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की थी, लेकिन
स्वतन्त्रता प्राप्त करने के 68 वर्ष बाद भी हम उनके लैंगिक समानता आधारित समाज के स्वप्न
को साकार नही कर पाये हैं इसका कारण है शैक्षिक लिंग भेद। डिस्ट्रिक्ट इन्फार्मेशन सिस्टम
फाॅर एजूकेशन (2011-12) की रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं की साक्षरता 65.5ः और पुरूषों
की 82.2ः है प्राथमिक स्तर पर लड़कियों का नामांकन 48.35ः और उच्च स्तर पर 17ः
जबकि लड़कों का 20ः है। आल इण्डिया सर्वे आन हायर एजूकेशन 2010-11 के अनुसार
स्नातक एवं परास्नातक पाठ्यक्रमों में लड़के एवं लडकियों का नामांकन क्रमशः 45ः एवं 55ः,
जबकि पी0एच0डी0 में, 62ः एवं 38ः है।
जेण्डर गैप रिपोर्ट (2015) के अनुसार 145 देशों में भारत की श्रेणी, महिलाओं की शैक्षिक
उपलब्धि में 125वीं है और राजनीति में नौवीं है। वास्तव में महिला भारत में राजनैतिक दृष्टि से
बड़ी सशक्त है। विभिन्न राज्यों में सर्वोच्च राजनैतिक पदों पर महिलाओं की उपस्थिति इसे विश्व
में दूसरा स्थान दिलाती है। अमेरिका जैसे प्रगतिशील देशों में भी अभी तक सर्वेाच्च राष्ट्रपति पद
पर महिला आसीन नही हुयी है जबकि हमारे यहाॅं प्रतिभा देवी सिंह पाटिल पहले ही राष्ट्रपति
पद को सुशोभित कर चुकी है।
वर्तमान में मानव संसाधन एवं विकास मन्त्रालय स्मृति ईरानी के पास है अर्थात एक
महिला के हाथों में ही महिलाओं को शिक्षित करने की जिम्मेदारी है लेकिन सर्वोच्च पदों पर
महिलाओं के होने के बावजूद भी आम महिलायें शैक्षिक रूप से पुरूषों के बराबर सशक्त नही हो
पा रही है और हम ‘प्लेज फाॅर पैरिटी’ को पूरा नही कर पा रहें है।
आखिर कारण क्या हैं? आइये देखते हैं।
हमारी संस्कृति में विवाह अनिवार्य माना जाता है, विवाह न करने पर महिला को सम्मान
की दृष्टि से नही देखा जाता। कई इलाकों में तो आज भी बाल-विवाह प्रचलित है इसके
अतिरिक्त हमारे यहाॅं विवाह की आयु 18 वर्ष है, यह वह उम्र है जब तक शिक्षा पूरी नही हो
पाती, इस प्रकार विवाह की अनिवार्यता और कम उम्र में विवाह महिलाओं को शिक्षा के अधिकार
से वंचित कर देता है मुथेजा, पापुलेशन फाउन्डेशन आॅफ इण्डिया, की निर्देशक के अनुसार,
‘‘विवाह पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं के भविष्य को अधिक सीमित कर देता है।
दूसरा कारण हमारे समाज में दहेज प्रथा का अनेक सरकारी प्रयासों के बावजूद, आज भी
प्रचलित होना है। दहेज के बोझ की वजह से माता-पिता लड़कियों की पढ़ाई पर अधिक खर्च
नहीं करना चाहते क्योंकि वे जानते है कि उनकी लड़की चाहें कितनी भी सुशिक्षित क्यों न हो,
सुयोग्य वर के लिये उन्हे विवाह पर विपुल धन खर्च करना ही होगा।
तृतीय कारण हमारा पुरूष सत्तात्मक समाज है। हमारे यहाॅं महिलाओं का प्रथम दायित्व
गृह-कार्य और बच्चों की परवरिश समझी जाती है, नौकरी करना आवश्यक नही समझा जाता।
यह परम्परागत सोच भी महिलाओं की शिक्षा में बाधक है।
साथ ही साथ विद्यालयों का पहुॅंच से बाहर होना, जहाॅं न बिजली है न आवागमन की
सुविधायें है, सभी विद्यालयों में महिला प्रसाधन का न होना और महिला शिक्षकों की सहभागिता
अनुपात से कम होना भी महिलाओं के अशिक्षित होने के कारण हैं क्योंकि इन्फार्मेशन सिस्टम
फार एजूकेशन (2011-12) की रिपोर्ट के अनुसार, 72.16 प्रतिशत विद्यालयों में महिला प्रसाधन है
लेकिन प्राथमिक स्तर पर यह प्रतिशत 65.4 है। महिला शिक्षकों का प्रतिशत प्राथमिक स्तर पर
46.27 है तथा आल इण्डिया सर्वे आॅफ हायर एजूकेशन के अनुसार ‘‘उच्च स्तर पर 59 प्रतिशत
महिला शिक्षक हैं। बहुत से अभिभावक पुरूष शिक्षकों से अपनी बेटियों को पढवाना पसन्द नही
करते तथा बहुत सी लड़कियाॅं स्वयं भी पुरूष शिक्षकों से पढ़ने में संकोच करती है।
इसके अतिरिक्त महिला हिंसा, निम्न स्वास्थ्य स्तर, जागरूकता की कमी और जेन्डर
वायज्ड पाठ्य पुस्तकें भी महिलाओं की शिक्षा के अवरोधक हैं, एन0सी0ई0आर0टी0 की प्राथमिक
स्तर की पाठ्यपुस्तकों का लैंगिक विष्लेषण दर्शाता है कि 18 पुस्तकों में महिलाओं को नर्स,
शिक्षिका और गृहणी की परम्परागत भूमिकाओं में, जबकि पुरूषों को मुख्य व्यवसायिक भूमिकाओं
में चित्रित किया गया है।
इन चुनौतियों पर विजय पाने के लिये विवाह के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा,
विवाह की आयु बढ़ानी होगी, समाज को लड़कियों के प्रति संवेदनशील बनाना होगा, इसके लिये
शैक्षिक एवं सामाजिक स्तर पर ‘जेन्डर सेन्सटिव ट्रेनिंग प्रोग्राम’ की शुरूआत करनी होगी। साथ
ही साथ विद्यालयों को महिलाओं की पहुॅंच में लाना होगा, महिला शिक्षिकाओं की अधिकाधिक
नियुक्ति करनी होगी, विद्यालयों में प्रसाधन सुविधाओं को सुनिश्चित करना होगा पाठ्यक्रम में
आत्मरक्षा एवं स्वास्थ्य कार्यक्रमों एवं महिला जागरूकता कार्यक्रमों को सम्मिलित करना होगा,
पाठयपुस्तकों को सुधारना होगा जो महिलाओं को कमजोर तरीके से चित्रित करती है तथा इनमें
ऐसी विषय वस्तु को स्थान देना होगा जो महिलाओं को प्रेरित एवं सशक्त कर सके जैसे,
विकसित देशों में महिलाओं की दशा, महिला अधिकार एवं कानून, महान महिलाओं की जीवनियाॅं,
महिला सशक्तीकरण की आवश्यकता आदि, तभी हम शैक्षिक लिंग भेद को मिटा पायेगें तथा
अम्बेडकर के लैंगिक समानता आधारित समाज के स्वप्न को साकार कर पायेगें। यही उनके
जन्मदिवस पर उन्हे सच्ची पुष्पांजलि होगी।

(स्वतन्त्र भारत शाहजहाॅंपुर 16 अप्रैल 2016 में प्रकाशित)